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धर्म एवं दर्शन >> उद्धव शतक

उद्धव शतक

जगन्नाथ दास रत्नाकर

प्रकाशक : सुमित्र प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :104
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 8075
आईएसबीएन :00

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उद्धव शतक

Uddhav Shatak - A Hindi Book - by Jagannathdas Ratnakar

।।ओं।।
श्री गणेशाय नमः

मंगलाचरण

 

जासौँ जाति विषय-विषाद की बिवाई बेगि
चीप-चिकनाई चित चारु गहिबौ करै।
कहै रतनाकर कबित्त-बर-व्यंजन मैँ
जासौँ स्वाद सौगुनौ रुचिर रहिबौ करै।।
जासौँ जोति जागति अनूप मन-मंदिर मैँ
जड़ता-विषम-तम-तोम-दहिबौ करै।
जयति जसोमति के लाड़िले गुपाल, जन
रावरी कृपा सौँ सो सनेह लहिबौ करै।।

 

श्री उद्धव को मथुरा से ब्रज भेंजते समय के कवित्त

(१)

 

न्हात जमुना मैँ जलजात एक देख्यौ जात
जाकौ अध-ऊरध अधिक मुरझायौ है।
कहै रतनाकर उमहि गहि स्याम ताहि
बास-बासना सौँ नैँकु नासिका लगायौ है।
त्यौँ हौँ कछ धूमि झूमि बेसुध भाए कै हाय
पाय परे उखरि अभाय मुख छायौ है।
पाये धरी द्वैक मैँ जगाइ ल्याइ ऊधौ तीर
राधा-नाम कीर जब औचक सुनायौ है।।

 

(२)

 

आए भुज-बंध दए ऊधव-सखा कैँ कंध
डग-मग पाय पग धरत धराए हैँ।
कहै रतनाकर न बूतैँ कछु बोलत औ
खोलत न नैन हूँ अचैन चित छाए हैँ।।
पाइ बहे कंज मैँ सुगंध राधिका को मंजु
ध्याए कदली-बन मतंग लौँ मताए हैँ।
कान्ह गए जमुना नहान पै नए सिर सौँ
नीकैँ तहा नेह की नदी मैँ न्हाइ आए हैँ।।

 

(३)

 

देखि दूरि ही तैँ दौरि पौरि लगि भेँटि ल्याइ
आसन दै साँसनि समेटि सकुचानि तैँ।
कहै रतनाकर यौँ गुनन गुबिंद लागे
जौलौँ कछ भूले से भ्रमे से अकुलानि तैँ।।
कहा कहैँ ऊधौ सौँ कहैँ हूँ तौ कहाँ लौँ कहैँ
कैसे कहैँ कहैँ पुनि कौन सी उठानि तैँ।
तौलौँ अधिकाई तै उमगि कंठ आइ भिँचि
नीर ह्वै बहन लागी बात अँखियानि तैँ।।

 

(४)

 

बिरह-बिथा की कथा अकथ अथाह महा
कहत बनै न जो प्रबीन सुकबीनि सौँ।
कहै रतनाकर बुझावन लगे ज्यौँ कान्ह
ऊधौ कौँ कहन-हेत ब्रज-जुवतीनि सौँ।।
गहबरि आयौ गरौ भभरि अचानक त्यौँ
प्रेम पर्यौ चपल चुचाइ पुतरींनि सौँ।
नैँकु कही बैननि, अनेक कही नैननि सौँ
रही-सही सोऊ कहि दीनी हिचकीनि सौँ।।

 

(५)

 

नंद औ जसोमति के प्रेम-पगे पालन की
लाड़-भरे लालन को लालच लगावती।
कहै रतनाकर सुधाकर-प्रभा सौँ मढ़ी
मंजु मृगनैनिनि के गुन-गन गावती।।
जमुना-कछारनि की रंग-रस-रारनि की
बिपिन-बिहारनि की हौँस हुमसावति।
सुधि ब्रज-बासिनी दिवैया-सुख-रासिनी की
ऊधौ नित हमकौँ बुलावन कौँ आवती।।

 

(६)

 

चलत न चार्यौ भाँति कोटिनि बिचार्यो तऊ
दाबि दाबि हार्यो पै न टार्यौ टसकत है।
परम गहीली बसुदेव-देवकी की मिली
चाट-चिमटी हूँ सौँ न खैँचो खसकत है।।
कढ़त न क्यौँ हूँ हाय बिथके उपाय सबै
धीर-आक-छीर हूँ न धारैँ धसकत है।
ऊधौ ब्रज-बास के बिलासनि को ध्यान धँस्यो
निसि-दिन काँटे लौँ करेजौँ कसकत है।।

 

(७)

 

रूप-रस पीवत अघात ना हुते जो तब
सोई अब आँस ह्वै उबरि गिरिबौ करैँ।
कहै रतनाकर जुड़ात हुते देखैँ जिन्हैँ
याद किएँ तिनकौँ अँवाँ सौं घिरिबौ करैँ।।
दिननि के फेर सौं भयौ है हेर-फेर ऐसौ
जाकौँ हेर फेरि हेरिबौई हिरबौ करैँ।
फिरत हुते जु जिन कुंजन मैँ आठौ जाम
नैननि मैँ अब सोई कुंज फिरिबौ करैँ।।

 

(८)

 

गोकुल की गैल-गैल गैल-गैल ग्वालिन की
गोरस कैँ काज लाज-बस कै बहाइबौ।
कहै रतनाकर रिझाइबौ नवेलिनि कौँ
गाइबौ गवाइबौ औ नाचिबौ नचाइबौ।।
कीबौ स्त्रमहार मनुहार कै बिबिध बिधि
मोहिनी मृदुल मंजु बाँसुरी बजाइबौ।
ऊधौ सुख-संपति-समाज ब्रज-मंडल के
भूलैँ हूँ न भूलैँ भूलैँ हमकौँ भुलाइबौ।।

 

(९)

 

मोर के पखौवनि को मुकुट छबीलौ छोरि
क्रीट मनि-मंडित धराए करिहैँ कहा।
कहै रतनाकर त्यौँ माखन-सनेही बिनु
षट-रस ब्यंजन चबाइ करिहैँ कहा।।
गोपी-ग्वाल-बालिन कौँ झोँ कि बिरहानल में
हरि सुर-बृदं की बलाइ करिहैँ कहा।
प्यारौ नाम गोविँद गुपाल कौ बिहाइ हाय
ठाकुर त्रिलोक के कहाइ करिहैँ कहा।।

 

(१॰)

 

कहत गुपाल माल मंजु मनि पुंजनि की
गुंजनि की माल की मिसाल छबि छावै ना।
कहै रतनाकर रतन-मैँ किरीट अच्छ
मोर-पच्छ-अच्छ-लच्छ-अंसहू सु-भावै ना।।
जसुमति भैया की मलैया अरु माखन कौ
काम-धेनु-गोरस हूँ गूढ़ गुन पावै ना।
गोकुल की रज के कनूका औ तिनूका सम
संपति त्रिलोक की बिलोकन मैँ आवै ना।।


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